मेरे गाँव का छोटा सा बस स्टैंड लोगों और भीड़-भाड़ वाली बसों से भरा रहता था। उस जगह पर बस में चढ़ाने को बहुत सारी चीज़ें थीं। कंडक्टर भी बस की जानेवाली जगहों के नाम पुकारते हुए ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगा रहे थे।
शहर जाने वाली बस लगभग भर चुकी थी, लेकिन और लोग इसमें जाने के लिए धक्के दे रहे थे। कुछ लोगों ने अपना सामान बस के अंदर रखा था। और लोगों ने उसे अंदर बने तख़्तों पर रखा था।
नये यात्री अपना टिकट हाथों में दबाये, भीड़ वाली बस में बैठने के लिए जगह ढूँढ़ रहे थे। छोटे बच्चों के साथ महिलाएँ भी इस लंबी यात्रा के लिए अपनी जगह आरामदेह बना रही थीं और अपने बच्चों को आराम से बैठा रही थीं।
मैं एक खिड़की के बगल में घुस गया। मेरे बगल में बैठे हुए आदमी ने हरे रंग का प्लास्टिक का बैग ज़ोर से पकड़ रखा था। उसने पुरानी चप्पल, घिसा हुआ कोट पहना था और वह घबराया हुआ लग रहा था।
लोगों के बस में चढ़ने का क्रम ख़त्म हुआ और सभी यात्री बैठ गए। फेरीवाले अभी भी यात्रियों को अपना सामान बेचने के लिए बस में घुस रहे थे। वे अपनी उन सभी चीज़ों का नाम बोल रहे थे जो उन्हें बेचनी थीं। उनके वे शब्द मुझे मज़ेदार लग रहे थे।
कुछ यात्रियों ने पीने के लिए कुछ लिया और कुछ ने हल्का फुल्का नाश्ता लिया और उसे खाने-पीने लगे। मेरे जैसे लोग, जिनके पास पैसे नहीं थे, वह यह सब बस देखते ही रहे।
फेरीवाले बस से बाहर जाने के लिए एक दूसरे को धक्का दे रहे थे। उनमें से कुछ यात्रियों को खुले पैसे वापस लौटा रहे थे। और बाकी सभी, अंतिम समय में और सामान बेचने की कोशिश में लगे हुए थे।
लेकिन मेरा ध्यान वापिस घर की ओर चला गया। क्या मेरी माँ ठीक होगी? क्या मेरे खरगोशों से मुझे कुछ पैसे मिलेंगे? क्या मेरे भाई को उन पेड़ों में पानी डालना याद रहेगा जो मैंने लगाये हैं?
नौ घंटे बाद, मैं गाँव वापस जा रहे यात्रियों को बुलाए जाने और बस का दरवाज़ा ज़ोर से पीटने की आवाज़ से जगा। मैंने अपना छोटा सा थैला उठाया और बस से बाहर कूद गया।